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बाईसवाँ सूक्त
पूर्ण आनन्दकी ओर यात्राका सूक्त
[ वस्तुओंका भोक्ता मनुष्य अपनी कामनाओंकी तृप्ति आनन्दकी चरम समतामे प्राप्त करना चाहता है । इस लक्ष्यके लिये उसे उस दिव्य ज्वाला एवं द्रष्ट्री संकल्पशक्तिके द्वारा पवित्र बनना होता है जो अपने अन्दर सचे-तन अन्तर्दृष्टि और पूर्ण आनन्दोल्लास धारण किये है । अपने अन्दर उसे बढ़ाते हुए हम अपने प्रगतिशील यज्ञके द्वारा यात्रामें अग्रसर होंगे और देव-गण हमारे अन्दर अपने आपको पूर्णतया प्रकट करेंगे । हमें इस दिव्यशक्ति-का इस रूपमें स्वागत-सत्कार करना चाहिये कि वह हमारे घरका, हमारे भौतिक और मानसिक शरीरका स्वामी है, और हमें अपने सुखोपभोगके सम्पूर्ण बिषय उसे उसके भोजनके रूपमें अर्पित कर देने चाहियें । ] १ प्र विश्वसामन्नत्रिवदर्चा पावकशोचिषे । यो अध्वरेष्वीवडचो होता मन्द्रतमो विशि ।।
(विश्वसामन्) हे सबमें एकसमान आत्मसिद्धि चाहनेवाले मनुष्य, (अत्रिवत्) सब पदार्थोंके भोक्ताके रूपमें तू (पावक-शोचिषे) चमकीली, पवित्र करनेवाली ज्वालाके अधिपतिके प्रति (अर्च) प्रकाशमय स्तुति-वचन गा, (य:) जो (अध्वरेषु) हमारे यज्ञोंकी यात्रामें (ईडच:) हमारी पूजाका पात्र है, (होता) हविरूप भेंटका वाहक पुरोहित है, (विशि मन्द्रतम:) प्राणिमात्रमें अत्यधिक आनन्दसे भरपूर है । २ न्यग्निं जातवेदसं दधाता देवमृत्यिजम् । प्र यज्ञ एत्यानुषगगद्या देवव्यचस्तम: ।।
(अग्निं) उस संकल्पाग्निको (नि दधात) अपने अन्दर स्थापित कर जो (जातवेदसं) सब उत्पन्न पदार्थोंका ज्ञाता है, (देवमू ऋत्विजं) ऋतुओंके अनुसार यज्ञ करनेवाला दिव्य याजक है । (अद्य) आज (यज्ञ:) तेरा यज्ञ (आनुषक्) निरन्तर (प्र एतु) प्रगति करे । वह (देवव्यचस्तम:) देवोंके सम्पूर्ण आविर्भावको तेरे प्रति प्रकाशित करे । १०६
पूर्ण आनन्दकी ओर यात्राका सूक्त ३ चिकित्विन्मनसं त्वा देवं मर्तास ऊतये । वरेण्यस्य तेऽवस इयानासो अमन्महि ।।
(मर्तास:) हम मर्त्योंने (त्वा देवं) तुझ देवमें (अमन्महि) अपने मनको स्थित किया हैं क्योंकि तू (चिकित्वित्-मनसम्) सचेतन अन्तर्दर्शनसे युक्त मनवाला है । (इयानास:) जैसे हम यात्रा करते हैं वैसे ही (ऊतये अमन्महि) हम तेरा ध्यान करते हैं ताकि हम बढ़े और (ते वरेण्यस्य अवसे) तुझ अत्य-धिक वरणीयको भी बढ़ाये । ४ अग्ने चिकिद्धचस्य न इदं वच: सहस्य । त त्वा सुशिप्र दम्पते स्तोमैर्वर्धन्त्यत्रयो गीर्भि: शुम्भन्त्यत्रय: ।।
(अग्ने) हे सकल्पाग्ने ! तू हमारे अन्दर (अस्य) इस अन्तर्दर्शनके प्रति (चिकिद्धि) जाग, (नः इदं वच:) तेरे प्रति हमारा यह वचन है । (सहस्य) हे शक्तिके अधीश्वर ! (सुशिप्र) हे दृढ़ जबड़ेवाले उपभोक्ता ! (दम्पते) हे हमारे घरके स्वामी ! (अत्रय:) वस्तुओंके भोक्ता वे (त्वां) तुझे (स्तोमै: वर्धयन्ति) अपनी स्तुतियोंसे बढ़ाते हैं और (अत्रय:) उपभोग-कर्ता वे (त्वा) तुझे (गीर्भी:) अपने स्तुतिवचनोंसे (शुम्भन्ति) उज्ज्वल- आनन्दमय वस्तु बनाते हैं । १०७
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